Friday, October 15, 2010

ग़ज़ल कितना कमा सकती है

कब तलक फूल खिला सकती है
इक ग़ज़ल कितना कमा सकती है
 
ये तो हमने कभी सोचा ही नहीं
बुझदिली जान बचा सकती है
 
कोई आवाज उठाये तो ये रात
दीप क्या , धुप भी ला सकती है
 
भूल में जिल्ले -इलाही  ना रहे
भीड़ पत्थर भी उठा सकती है
 
दरो- दीवार को मत ओढ़ के बैठ
मौत कमरे में भी आ सकती है