Tuesday, September 28, 2010

परिन्दे गर्दन डाले बैठे हैं

उलटे सीधे सपने पाले बेठे हैं,
सब पानी में कांटा डाले बेठे हैं

एक बीमार वसीयत करने वाला है
रिश्ते -नाते जीभ निकाले बैठे हैं

बस्ती का मामूल पे आना मुश्किल है
चौराहे पर वर्दी वाले बैठे हैं

धागे पर लटकी है इज्जत लोगों की
सब अपनी दस्तार संभाले बैठे हैं

साहिबजादा पिछली रात से गायब है
घर के अन्दर रिश्ते वाले बैठे हैं

आज शिकारी की झोली भर जाएगी
आज परिन्दे गर्दन डाले बैठे हैं....
 

Friday, September 10, 2010

"जुल्फ़ें, लब, रुखसार उठाये फिरते हैं"

जुल्फ़ें, लब, रुखसार उठाये फिरते हैं,

सब कल का अखब़ार उठाये फिरते हैं


दुनिया चाँद सितारे छुकर लौट आई
आप दिले - बीमार उठाये फिरते हैं


आँगन में टकसाल लगा ली लोगों ने
हम जैसे किरदार उठाये फिरते हैं


दीवाना तो चादर तान के सोता है
बोझ तेरे हुश्यार उठाये फिरते हैं


जिनके हाथ में गुडिया - गुड्डे होने थे
पैमाना परकार उठाये फिरते हैं


सब के कांधों पर है बोझ गुनाहों का
नेकी तो दो चार उठाये फिरते हैं

Thursday, September 9, 2010

"सफ़र से लौट जाना चाहता है"

सफ़र से लौट जाना चाहता है
परिंदा आशियाना चाहता है



कोई स्कूल की घंटी बजा दे
ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है



उसे रिश्ते थमा देती है दुनिया
जो दो पैसे कमाना चाहता है



यहाँ साँसों के लाले पड़ रहे हैं
वो पागल ज़हर खाना चाहता है


जिसे भी डूबना हो, डूब जाए
समंदर सुख जाना चाहता है


हमारा हक़ दबा रखा है जिसने
सुना है हज को जाना चाहता है