Friday, December 10, 2010

रिश्तो की दलदल

रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे
चाँद सितारे गोद में आकर बैठ गये
सोचा ये था पहली बस से निकलेंगे
सब उम्मीदों के पीछे मायूसी है
तोड़ो ! ये बादाम भी कडवे निकलेंगे
मैंने रिश्ते ताक़ पे रखकर पूछ लिया
एक छत पर कितने परनाले निकलेंगे
जाने कब ये दौड़ थमेगी सांसो की
जाने कब पैरों से जूते निकलेंगे
हर कोने से तेरी खुशबु आएगी
हर संदूक में तेरे कपड़े निकलेंगे
अपने खून से इतनी तो उम्मीदे हैं
अपने बच्चे भीड़ से आगे निकलेंगे

Saturday, November 20, 2010

जहर पचाया जा सकता है

खाने को तो जहर भी खाया जा सकता है
लकिन उसको फिर समझाया जा सकता है
 
सबसे पहले दिल के खालीपन को भरना
पैसा सारी उम्र कमाया जा सकता है
 
मैंने   कैसे    कैसे   सदमे    झेल    लिए हैं
इसका मतलब जहर पचाया जा सकता है
 
इतना इतमीनान है अब भी उन आँखों में
एक बहाना    और      बनाया जा सकता है
 
झूट में शक की कम गुंजाईश हो सकती है
सच को जब चाहो झुटलाया जा सकता है
 
दुनिया ने जितना आतंकित कर रक्खा  है
उतना खतरा रोज उठाया जा सकता है

Friday, October 15, 2010

ग़ज़ल कितना कमा सकती है

कब तलक फूल खिला सकती है
इक ग़ज़ल कितना कमा सकती है
 
ये तो हमने कभी सोचा ही नहीं
बुझदिली जान बचा सकती है
 
कोई आवाज उठाये तो ये रात
दीप क्या , धुप भी ला सकती है
 
भूल में जिल्ले -इलाही  ना रहे
भीड़ पत्थर भी उठा सकती है
 
दरो- दीवार को मत ओढ़ के बैठ
मौत कमरे में भी आ सकती है

Tuesday, September 28, 2010

परिन्दे गर्दन डाले बैठे हैं

उलटे सीधे सपने पाले बेठे हैं,
सब पानी में कांटा डाले बेठे हैं

एक बीमार वसीयत करने वाला है
रिश्ते -नाते जीभ निकाले बैठे हैं

बस्ती का मामूल पे आना मुश्किल है
चौराहे पर वर्दी वाले बैठे हैं

धागे पर लटकी है इज्जत लोगों की
सब अपनी दस्तार संभाले बैठे हैं

साहिबजादा पिछली रात से गायब है
घर के अन्दर रिश्ते वाले बैठे हैं

आज शिकारी की झोली भर जाएगी
आज परिन्दे गर्दन डाले बैठे हैं....
 

Friday, September 10, 2010

"जुल्फ़ें, लब, रुखसार उठाये फिरते हैं"

जुल्फ़ें, लब, रुखसार उठाये फिरते हैं,

सब कल का अखब़ार उठाये फिरते हैं


दुनिया चाँद सितारे छुकर लौट आई
आप दिले - बीमार उठाये फिरते हैं


आँगन में टकसाल लगा ली लोगों ने
हम जैसे किरदार उठाये फिरते हैं


दीवाना तो चादर तान के सोता है
बोझ तेरे हुश्यार उठाये फिरते हैं


जिनके हाथ में गुडिया - गुड्डे होने थे
पैमाना परकार उठाये फिरते हैं


सब के कांधों पर है बोझ गुनाहों का
नेकी तो दो चार उठाये फिरते हैं

Thursday, September 9, 2010

"सफ़र से लौट जाना चाहता है"

सफ़र से लौट जाना चाहता है
परिंदा आशियाना चाहता है



कोई स्कूल की घंटी बजा दे
ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है



उसे रिश्ते थमा देती है दुनिया
जो दो पैसे कमाना चाहता है



यहाँ साँसों के लाले पड़ रहे हैं
वो पागल ज़हर खाना चाहता है


जिसे भी डूबना हो, डूब जाए
समंदर सुख जाना चाहता है


हमारा हक़ दबा रखा है जिसने
सुना है हज को जाना चाहता है