रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे
चाँद सितारे गोद में आकर बैठ गये
सोचा ये था पहली बस से निकलेंगे
सब उम्मीदों के पीछे मायूसी है
तोड़ो ! ये बादाम भी कडवे निकलेंगे
मैंने रिश्ते ताक़ पे रखकर पूछ लिया
एक छत पर कितने परनाले निकलेंगे
जाने कब ये दौड़ थमेगी सांसो की
जाने कब पैरों से जूते निकलेंगे
हर कोने से तेरी खुशबु आएगी
हर संदूक में तेरे कपड़े निकलेंगे
अपने खून से इतनी तो उम्मीदे हैं
अपने बच्चे भीड़ से आगे निकलेंगे
bahut sundar ,,,man moh liya
ReplyDeleteप्रशंसनीय रचना है।
ReplyDeleteउम्मीदों पे दुनिया कायम है...
ReplyDeleteसुन्दर रचना...
superb dad....... this one has always been one of my favourites.......
ReplyDeletei feel so proud....